गांधी की कांग्रेस: पुण्यतिथि पर विशेष।
आज फिर 137 वर्ष बाद कांग्रेस अपने उस दौर को वापिस जी रही है। जो गांधी का दौर था। जो आंदोलनकारी यात्राओं का दौर था। उस वक्त भी एक गांधी अपनी यात्राओं से, विदेशी हुकूमत को दहशत में डाल रहा था, वर्तमान में भी एक गांधी उस दौर को जी रहा है। भारत जोड़ो यात्रा निकाल कर परिस्थितियों से लोहा ले रहा है।
कांग्रेस की जड़ें भारत के इतिहास को बतला रही है और उसकी शाखाएं भूगोल की शरहद तक जा रहीं है। कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक कि भारत जोड़ो यात्रा, अमन और प्रेम का पैगाम बांटते अविरल चलता आ रहा है।
कांग्रेस’ एक लेटिन भाषा का शब्द है जिसका अर्थ “साथ आना” होता है, आज राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा; कांग्रेस के इस अर्थ को परिभाषित करते हुए कन्याकुमारी से कश्मीर तक भारत के लोगो को साथ लाने का लक्ष्य लिए निकली हुई है।
सुनो ह्यूम की कहानी, जो किसी ने न जानी
सन 1857 के क्रांति की आग उस दौर में अपने उफान पर थी जब ब्रिटिश सेना की तरफ से एक फिरंगी इटावा का कलेक्टर बनकर आया। ब्रिटिश सेना का भारतीयों के प्रति पक्षपात का रवैया, उस फिरंगी को खुद ब्रिटिश सरकार के खिलाफ आवाज उठाने पर मजबूर कर दिया और सन 1982 में अपने कलेक्टर के पद से उसने अपना त्यागपत्र दे दिया।
यह वो दौर था जब ब्रिटिश सरकार का ही कोई मुलाजिम अपने सरकार की खिलाफत कर बैठा था, अपने ही देश से बगावत कर बैठा था। यह वो दौर था जब एक फिरंगी, फिरंगियों के खिलाफ बिगुल फूंक दिया था।
सन 1885, जब उस वक्त के गवर्नर जनरल ‘लॉर्ड डफरिन’ को उस फिरंगी ने, पूरी अंग्रेजी हुकूमत के अन्याय के खिलाफ दो टूक जवाब दिया था। आलोचकों के नजरिये में वह फिरंगी एक देश द्रोही राजनीतिक दल का निर्माता बना। जिसने एक ऐसे राजनीतिक दल की नींव रखी जो इस देश पर सत्तर वर्षों तक राज किया।
ए.ओ.ह्यूम ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि, उनके द्वारा बम्बई के गमले में रोपा हुआ कांग्रेस का पौधा, भारतीय आंदोलनकारियों द्वारा विशाल बरगद बन जायेगा।
एलन ऑक्टोवियन ह्यूम!!
एक फिरंगी जो उस गमले में खिले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस रूपी पुष्प का संस्थापक महासचिव रहा।

वैचारिक मतभेद था पर लक्ष्य बड़ा था
आजादी के संघर्ष को ईमानदारी से लड़ा था
असल में कांग्रेस राजनीति में घूमती हुई नहीं आई। कांग्रेस किसी संस्कृति इतिहास की दुर्घटना नहीं है। बल्कि इतिहास के मंथन से करोड़ों जरूरतमंद भारतीयों को आज़ादी का संघर्ष करने की ऐतिहासिक ज़रूरत समझाने के लिए कांग्रेस पैदा हुई।
उस दौर में केशवराव हेडगेवार की राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और सावरकर की हिन्दू महासभा राष्ट्रवादी ताकतों को इकट्ठा कर रही थी। कांग्रेस के नेता जब आज़ादी के लिए संघर्ष कर रहे थे तब ये राष्ट्रवादी ताकतें हिंदुओ को इकट्ठा करने में व्यस्त थी।
यूँ तो आजादी के लड़ाई लड़ने के तरीकों को लेकर कांग्रेस के भीतर भी अंदरूनी असहमति रही। तिलक और गोखले में, गांधी और सुभाष में, नेहरू और सरदार पटेल में, नरम दल और गरम दल में, यहां तक कि बाप-बेटे मोतीलाल नेहरू और जवाहरलाल नेहरू और पति पत्नी आचार्य कृपलानी – सुचेता कृपलानी में।
मगर इन असहमतियों के प्रभाव को उन्होंने कभी आजादी के रण में पड़ने नहीं दिया।
क्या नफ़रत को मोहब्बत से तोड़ पाएंगे?
क्या राहुल इस भारत को जोड़ पाएंगे?
राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा को आज सत्ताधारी ताकते जिस तरह से भारत तोड़ो यात्रा का नाम देकर प्रचारित कर रही है, इन बातों से सन 1942 का वह दौर याद आता है जब महात्मा गांधी अंग्रेजो भारत छोड़ो आंदोलन की नींव रख रहे थे और पदयात्राएं निकाल रहें थे, तब सावरकर के नेतृत्व वाली हिन्दू महासभा उन आंदोलनो का विरोध कर रही ही।
जो राष्ट्रवादी ताकते तब सावरकर के पास मौजूद थी, वही राष्ट्रवादी ताकते आज वर्तमान का नेतृत्व कर रहीं है। आज उन्ही राष्ट्रवादी ताकतो से राहुल गांधी मुकाबला कर रहें है।
राहुल गांधी की यह भारत जोड़ो यात्रा इस बात को प्रत्यक्ष प्रमाणित कर रही है कि यह वही कांग्रेस है जो उन्नीसवीं सदी की अंधेरी रात में जन्मी। बीसवीं सदी की भोर में घुटनों से उठकर पुख्ता पैरों पर चलना सीखा।
जिसकी जवानी गांधी के जिम्मे थी और जिम्मेदारियों को जवाहरलाल ने निभाए। शताब्दी की ओर बढ़ती हुई यह वही कांग्रेस है जिसकी बूढ़ी हड्डियों को इंदिरा गांधी और राजीव गांधी ने कभी आराम लेने नहीं दिया था।
परन्तु फिर एक ऐसा दौर आया जब यह गांधीवादी कांग्रेस, राष्ट्रवाद के समुंद्री ज्वार में पूरी तरह से समा गई।
वर्तमान में उस डूब चुकी कांग्रेस की बुनियाद को, भारत जोड़ो यात्रा के साथ राहुल गांधी फिर से किनारे में लाने की कोशिस कर रहें है।
देखना यह भी रोचक होगा कि डूब चुकी इस कांग्रेस की नाव में क्या अब भी इतनी क्षमता बची है कि वह वापिस अपने पुराने सुमन्दर को जीत सके?
क्योंकि यह सत्य है कि राष्ट्रवाद और गांधीवाद के वैचारिक युद्ध मे कांग्रेस पराजित हो चुकी है।
मगर एक सत्य यह भी है कि; राष्ट्रवाद के साथ समझौता न करते हुए, अपनी गांधीवादी विचारों के सहारे, कांग्रेस अभी राजनीतिक महासागर में तैरने की कोशिस कर रही है।

जिसने हमेसा ही बदनामी फैलाई
असल मे यह थी बंटवारे की सच्चाई
सन सैंतालीस का बंटवारा; यूँ तो आलोचक कांग्रेस और गांधी पर आजीवन के लिए आक्षेपों का आरोप मढ़ चुके है परन्तु इन आरोपो के पीछे एक तीसरी आंख भी है जो कांग्रेस और गांधी को बंटवारे का दोषी बताने वाली बातों को रोक कर रखी है। वह तीसरी आंख सत्य की है।
भारत पाकिस्तान बंटवारे की जिम्मेदार टू नेशन थ्योरी सिर्फ जिन्ना ने ही नही गढ़ी थी, बल्कि इसकी नींव सन 1934 मे ही हिन्दू महासभा में रखी जा चुकी थी।
बंटवारा जितनी जिन्ना की चाह थी उतनी ही सावरकर की भी चाहत थी।
एक मुस्लिम मुल्क बनाने की जंग में था, तो दूसरा हिन्दू राष्ट्र की बुनियाद रखने के स्वप्न देख रहा था।
गांधी और कांग्रेस इन दोनों धर्मो को साथ लेकर चलना चाहे तो सारे आक्षेपों के कसूरवार हो गए। बंटवारे के जिम्मेदार हो गए। क्योंकि बंटवारे के वक्त बहती हुई खून की नदियों को रोकने के लिए गांधी और कांग्रेस ने बंटवारे के लिए हामी भर दी थी।

तब की परिस्थितिया क्या थी इस पर कोई बात नहीं करना चाहता है पर अंजाम को अपने अनुसार परिभाषित करना सभी सीख चुके है।
वर्तमान में भारत जोड़ो यात्रा भी कालक्रम की उन परिस्थितियों की परिचायक बनते हुए कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक, देश मे धर्म और जाति के आधार पर पैदा की गई नफरतों को खत्म करने की एक कोशिस बन रही है।

धर्म के नाम पर जंगे तब भी हुई थी और देश की जमीन को बांटा गया था। धर्म के नाम पर जंगे अब भी हो रही है और देश को इंसानों में बांटा जा रहा है।
इस सियासत में मजहब का नफरत पल रहा!
तब अमन-प्रेम और चैन का किरदार और था!!
रहमान घण्टिया बजाता था हनुमान के मन्दिर में!
अरे छोड़िए जनाब, वो मोहब्बत का दौर था!!
